योगवशिष्ठ में बहुत ही सरल शब्दों मे गुह्य ज्ञान वशिष्ठ ने राम को दिया है। आप किसी भी धर्म से हो, ये वैज्ञानिक विधि को करके मन को जीत सकते है।मन को जीतने के लिए और चित्त को शांत करने के लिए, प्राण को शांत करना ज़रूरी हैं। जैसे सुगंध का फूल, उष्णता का अग्नि आधार है, वैसे ही चित्त का यह प्राण आधार है। चित्त का स्पंदन प्राण स्पंदन के अधीन हैं। इसलिए प्राण का निरोध करने पर मन अवश्य शांत हो जाता हैं।प्राणों के स्पंदन को कैसे रोके?वशिष्ठ ने बहुत सारे उपाय से प्राणों का निरोध करने की विधि बताई है। नीचे से कोई भी विधि को चुन कर आप रोज कुछ देर ये अभ्यास करें। कम से कम दो महीने इस को आप निरंतर करे, और अपने अंदर रूपांतरण को देखें।शास्त्रो का अध्ययन, सत पुरुषो का संग, वैराग्य और सांसारिक पदार्थो में सत्ता का अभाव, समझकर अपने इष्टदेव का ध्यान कर, उसमे एक ही सर्वव्यापी परमात्मा का चिन्तन करने से प्राणों का स्पंदन निरुद्ध हो जाता है।रेचक, पूरक और कुम्भक आदि प्राणायामों के दृण अभ्यास से, एवं ध्यान से प्राण वायु निरुद्ध हो जाती है।प्राणायाम के तीन भेद है।बाह्यवृति - प्राणवायु को शरीर से बाहर निकाल कर बाहर ही जितने काल तक सुखपूर्वक रुक सके, रोके रखना और साथ ही साथ इस बात की परीक्षा करते रहना की वह बाहर आकर कहाँ ठहरा है, कितने समय तक ठहरा है, और उतने समय में प्राण की गति की कितनी संख्या होती है, यह बाह्यवृति प्राणायाम है। इसे रेचक भी कहते हैं।आभ्यन्तर वृति - प्राण वायु को भीतर ही जितने कालतक सुख पूर्वक रुक सके, रोके रखना, और साथ ही साथ इस बात की परीक्षा करते रहना की वह अंदर आकर कहाँ ठहरा है, कितने समय तक ठहरा है, और उतने समय में प्राण की गति की कितनी संख्या होती है, इसे पूरक भी कहते है।स्तम्भ वृति- शरीर के भीतर और बाहर निलकने वाली जो प्राणों की स्वाभाविक गति है, उसे प्रयत्न पूर्वक भीतर या बाहर ले जाने का अभ्यास न करके, प्राण वायु स्वभाव से बाहर हो या भीतर हो, जहा हो वही उसकी गति को स्तम्भित कर देना ( रोक देना), और यह देखना की प्राण कहा रुका है, कितने समय तक रुका हैं, इसे कुम्भक कहते हैं।ओंकार का उच्चारण (ॐ) और उसके अर्थ का चिंतन करते रहने से, बाह्य विषय से ज्ञान का अभाव हो जाने से प्राण वायु का स्पंदन रुक जाता हैं।जीभ को उल्टा कर तालु के मध्यभाग में रहने वाली घंटिका को स्पर्श करने से (खेचरी मुद्रा), प्राण सुष्मना के ऊपरी भाग में बहने लगता है, और स्थिर हो जाता हैं।समस्त संकल्प- विकल्प से रहित होकर, कोई भी नाम रूप से रहित होकर, सूक्ष्म आकाश रूप परमात्मा में ध्यान करने से प्राण के स्पंदन निरुद्ध हो जाता है। बाहर और भीतर के विषय का त्याग कर देने से, मन को परमात्मा में लगा देने से, प्राणों की गति रुक जाती हैं और अपने आप होने वाला यह चौथा राजयोग का प्राणयाम है।नासिका के अग्रभाग से 12 अंगुल ऊपर नेत्रो की चैतन्यता युक्त दृष्टि रखने से, मन तुरंत शांत हो जाता है।आज्ञा चक्र में ध्यान लगाते हूवे, प्राणों को उसमें विलीन होते हुवे देखने से चिन्मय परमात्मा का अनुभव होने लगता है, और प्राण शांत हो जाते है।विषय वासना से ध्यान हटाकर हृदय मे स्थित एक मात्र चिन्मय आकाश स्वरूप परमात्मा का ध्यान करते रहने से, प्राण स्थिर होकर मन विलीन हो जाता हैं। योगवशिष्ठ में बहुत ही सरल शब्दों मे गुह्य ज्ञान वशिष्ठ ने राम को दिया है। आप किसी भी धर्म से हो, ये वैज्ञानिक विधि को करके मन को जीत सकते है।मन को जीतने के लिए और चित्त को शांत करने के लिए, प्राण को शांत करना ज़रूरी हैं। जैसे सुगंध का फूल, उष्णता का अग्नि आधार है, वैसे ही चित्त का यह प्राण आधार है। चित्त का स्पंदन प्राण स्पंदन के अधीन हैं। इसलिए प्राण का निरोध करने पर मन अवश्य शांत हो जाता हैं।प्राणों के स्पंदन को कैसे रोके?वशिष्ठ ने बहुत सारे उपाय से प्राणों का निरोध करने की विधि बताई है। नीचे से कोई भी विधि को चुन कर आप रोज कुछ देर ये अभ्यास करें। कम से कम दो महीने इस को आप निरंतर करे, और अपने अंदर रूपांतरण को देखें।शास्त्रो का अध्ययन, सत पुरुषो का संग, वैराग्य और सांसारिक पदार्थो में सत्ता का अभाव, समझकर अपने इष्टदेव का ध्यान कर, उसमे एक ही सर्वव्यापी परमात्मा का चिन्तन करने से प्राणों का स्पंदन निरुद्ध हो जाता है।रेचक, पूरक और कुम्भक आदि प्राणायामों के दृण अभ्यास से, एवं ध्यान से प्राण वायु निरुद्ध हो जाती है।प्राणायाम के तीन भेद है।बाह्यवृति - प्राणवायु को शरीर से बाहर निकाल कर बाहर ही जितने काल तक सुखपूर्वक रुक सके, रोके रखना और साथ ही साथ इस बात की परीक्षा करते रहना की वह बाहर आकर कहाँ ठहरा है, कितने समय तक ठहरा है, और उतने समय में प्राण की गति की कितनी संख्या होती है, यह बाह्यवृति प्राणायाम है। इसे रेचक भी कहते हैं।आभ्यन्तर वृति - प्राण वायु को भीतर ही जितने कालतक सुख पूर्वक रुक सके, रोके रखना, और साथ ही साथ इस बात की परीक्षा करते रहना की वह अंदर आकर कहाँ ठहरा है, कितने समय तक ठहरा है, और उतने समय में प्राण की गति की कितनी संख्या होती है, इसे पूरक भी कहते है।स्तम्भ वृति- शरीर के भीतर और बाहर निलकने वाली जो प्राणों की स्वाभाविक गति है, उसे प्रयत्न पूर्वक भीतर या बाहर ले जाने का अभ्यास न करके, प्राण वायु स्वभाव से बाहर हो या भीतर हो, जहा हो वही उसकी गति को स्तम्भित कर देना ( रोक देना), और यह देखना की प्राण कहा रुका है, कितने समय तक रुका हैं, इसे कुम्भक कहते हैं।ओंकार का उच्चारण (ॐ) और उसके अर्थ का चिंतन करते रहने से, बाह्य विषय से ज्ञान का अभाव हो जाने से प्राण वायु का स्पंदन रुक जाता हैं।जीभ को उल्टा कर तालु के मध्यभाग में रहने वाली घंटिका को स्पर्श करने से (खेचरी मुद्रा), प्राण सुष्मना के ऊपरी भाग में बहने लगता है, और स्थिर हो जाता हैं।समस्त संकल्प- विकल्प से रहित होकर, कोई भी नाम रूप से रहित होकर, सूक्ष्म आकाश रूप परमात्मा में ध्यान करने से प्राण के स्पंदन निरुद्ध हो जाता है। बाहर और भीतर के विषय का त्याग कर देने से, मन को परमात्मा में लगा देने से, प्राणों की गति रुक जाती हैं और अपने आप होने वाला यह चौथा राजयोग का प्राणयाम है।नासिका के अग्रभाग से 12 अंगुल ऊपर नेत्रो की चैतन्यता युक्त दृष्टि रखने से, मन तुरंत शांत हो जाता है।आज्ञा चक्र में ध्यान लगाते हूवे, प्राणों को उसमें विलीन होते हुवे देखने से चिन्मय परमात्मा का अनुभव होने लगता है, और प्राण शांत हो जाते है।विषय वासना से ध्यान हटाकर हृदय मे स्थित एक मात्र चिन्मय आकाश स्वरूप परमात्मा का ध्यान करते रहने से, प्राण स्थिर होकर मन विलीन हो जाता हैं।
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